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रुक्मिणी

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रुक्मिणी भगवान कृष्ण की सबसे प्रिय धर्मपत्नी तथा पटरानी थीं । रुक्मिणी को लक्ष्मी का अवतार भी माना जाता है । उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रेम विवाह किया था ।

श्री रुक्मिणी
प्रेम, भक्ति और करुणा की देवी
Member of पंच प्रकृति और देवी लक्ष्मी की अवतार

द्वारकाधीश श्रीकृष्ण के साथ रुक्मिणीजी
अन्य नाम कृष्णप्रिया, रुकमा बाई, किशोरी, माधवी, केशवी, श्रीजी
संबंध देवी महालक्ष्मी की अवतार, श्री कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति
निवासस्थान गोलोक, द्वारिका, वैकुंठ
मंत्र ॐ लक्ष्मीअवतार विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि तन्नो रुक्मिणी प्रचोदयात ।।
अस्त्र कमल
जीवनसाथी कृष्ण
माता-पिता भीष्मक राजा (पिता), कीर्ति देवी (माँ)
सवारी कमल और सिंहासन
शास्त्र महाभारत,भागवत पुराण,पद्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, स्कन्द पुराण, मत्स्य पुराण, गीत गोविंद, गर्ग संहिता, शिव पुराण, लिंगपुराण, वाराह पुराण, नारदपुराण[1]
त्यौहार रुक्मिणी अष्टमी, जन्माष्टमी, होली, गोपाष्टमी, कार्तिक पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, फुलेरा दूज (रुक्मिणी कृष्ण विवाह दिवस), लट्ठमार होली

रुक्मिणी (या रुक्मणी) भगवान कृष्ण की एकमात्र धर्मपत्नी और रानी हैं । द्वारका के राजकुमार कृष्ण ने उनके अनुरोध पर एक अवांछित विवाह को रोकने के लिए उनका हरण किया एवं अपने साथ ले गए तदन्तर उन्हें दुष्ट शिशुपाल (भागवत पुराण में वर्णित) से बचाया । रुक्मिणी को भाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार भी माना जाता है । जन्म पौराणिक आख्यानों के अनुसार, राजकुमारी रुक्मिणी का जन्म वैशाख ११ (वैशाख एकादशी) को हुआ था । यद्यपि एक सांसारिक रानी के रूप में जन्मी, देवी लक्ष्मी के अवतार के रूप में उनकी स्थिति पूरे पौराणिक साहित्य में वर्णित है ।

कौरवों के बीच एक नायक, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने राजा भीष्मक की पुत्री, वैर्दभी रुक्मिणी से विवाह किया, जो कि भाग्य की देवी [श्रीओ मयत्रम] का प्रत्यक्ष अवतार था। (भागवत पुराण १०.५२.१६) द्वारका के नागरिक कृष्ण को देखने के लिए आतुर थे जो कि भाग्य की देवी रुक्मिणी के साथ थे । (श्रीमद्भागवत १०.५४.६०) लक्ष्मी जी ने अपने भाग में धरती पर भीष्मक के परिवार में रुक्मिणी के रूप में जन्म लिया । (महाभारत आदिपर्व ६७.६५६) रुक्मिणीदेवी, कृष्ण की रानी शक्ति स्वरूपा (मूलप्रकृति) हैं, जो कृष्ण (कृष्णमिका) की आदशक्ति हैं और वह दिव्य विश्व (जगत्कारी), द्वारका/वैकुंठ की रानी/माता हैं । उनका जन्म हरिद्वार में शक्तिशाली यादव शासक भीष्मक की पुत्री के रूप में हुआ। श्रुतियां जो भगवान श्रीकृष्ण के साथ बृज की गोपियों के अतीत के आख्यानों से संबद्ध हैं, ने इस सत्य (गोपाल-तपानि नानीसाद ५७) की घोषणा की है, उन्हें विलग नहीं किया जा सकता । जैसे लक्ष्मी विष्णु की शक्ति हैं वैसे ही रुक्मिणी भी श्री कृष्ण की शक्ति है ।

रुक्मिणी विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री थीं । भीष्मक मगध के राजा जरासंध के जागीरदार थे । रुक्मिणी को श्रीकृष्ण से प्रेम हो गया और वह उनसे विवाह करने को तत्पर हो गईं । जिनका गुण, चरित्र, आकर्षण और महानता जग विख्यात थी । रुक्मिणी का ज्येष्ठ भ्राता रुक्मी दुष्ट राजा कंस का मित्र था (जिसे कृष्ण द्वारा बाद में वध कर दिया गया था ।), इस कारण वह इस विवाह के विरुद्ध था ।

रुक्मिणी के माता-पिता रुक्मिणी का विवाह कृष्ण से ही करना चाहते थे लेकिन रुक्मी ने इसका कड़ा विरोध किया । रुक्मी एक महत्वाकांक्षी राजकुमार था और वह निर्दयी जरासंध का क्रोध नहीं चाहता था । इसलिए उसने प्रस्तावित किया कि उसका विवाह शिशुपाल से किया जाए, जो कि चेदि का राजकुमार एवं श्रीकृष्ण का चचेरा भाई था । शिशुपाल, जरासंध का एक जागीरदार और निकट सहयोगी भी था इसलिए वह रुक्मी का भी सहयोगी था ।

भीष्मक अपनी आत्म इच्छा को मारकर रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के संग करने के लिए स्वीकृति दे दी । लेकिन रुक्मिणी जो कि इस वार्तालाप को चुपके से सुन चुकी थी, भयभीत थी । परंतु उसने शीघ्र ही एक विश्वस्त ब्राह्मण को कृष्ण को संदेश देने के लिए मना लिया । जिसमें कृष्ण को विदर्भ आकर उसे अपने साथ ले चलने की विनती थी । श्रीकृष्ण ने युद्ध से बचने के लिए उनका हरण कर लिया । उसने कृष्ण से कहा कि वह आश्चर्यचकित है, कि वह (कृष्ण) बिना किसी रक्तपात के इसे कैसे पूर्ण करेंगे ! यह देखते हुए कि वह अपने महल के भीतर है । लेकिन इस संकट का समाधान यह था कि रूक्मिणी को देवी गिरिजा के मंदिर में आराधना के बहाने से महल से निकलना होगा । कृष्ण ने द्वारका में संदेश प्राप्त करते ही ज्येष्ठ भ्राता बलराम के संग विदर्भ को प्रस्थान किया ।

इसी बीच, शिशुपाल को रुक्मी से इस समाचार पर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि वह अमरावती जिले के कुंडिना (वर्तमान के कौंडिन्यपुर) जाकर रुक्मिणी पर अपना अधिकार जता सकता है । जरासंध ने इस पर भरोसा न करते हुए अपने सभी जागीरदारों और सहयोगियों को शिशुपाल के सहायतार्थ साथ कर दिया क्योंकि अंदेशा था कि श्रीकृष्ण अवश्य ही रुक्मिणी को बचाने आएंगे । भीष्मक और रुक्मिणी को गुप्त समाचार ज्ञात हुआ कि श्रीकृष्ण आ रहे हैं । भीष्मक, जिन्होंने कृष्ण को गुप्त रूप से स्वीकृति दी थी और कामना की कि वे रुक्मिणी को अपने संग ले जाएँ, उनके लिए एक सुसज्जित भवन की व्यवस्था भी कर रखी थी । उसने उनका प्रसन्नता पूर्वक आदर-सत्कार कर उन्हें सहज किया । इस बीच रुक्मिणी महल में विवाह के लिए सज्ज हो गई । परंतु वह निराश और अशांत भी थी कि अभी तक श्रीकृष्ण की ओर से कोई समाचार क्यों नहीं आया ! लेकिन फिर उसके वाम अंगों के फड़कने से उसे शुभ शगुन परिलक्षित होने लगे । शीघ्र ही ब्राह्मण ने आकर सूचित किया कि कृष्ण ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया है, जब वह भगवान शिव की भार्या देवी गिरिजा के समक्ष पूजा के लिए मंदिर गई थीं । जैसे ही वह बाहर निकलीं, उन्होंने कृष्ण को अपने समक्ष पाया, वह शीघ्र ही उनके साथ रथ में सवार हो गईं । शिशुपाल ने उन्हें निकलते हुए देख लिया तत्पश्चात जरासंध की सारी सेनाएँ उनका पीछा करने लगीं । बलराम ने उनमें से अधिकांश पर नियंत्रण कर उन्हें वापस लौटा दिया । रुक्मी ने कृष्ण और रुक्मिणी को लगभग पकड़ ही लिया था, जब भद्रोद के पास उसका कृष्ण से सामना हुआ । [२]

श्रीकृष्ण और रुक्मी के मध्य भीषण द्वंद्व हुआ, जब श्रीकृष्ण रुक्मी का वध करने ही वाले थे तब रुक्मिणी श्रीकृष्ण के चरणों में गिर गईं और विनती की, कि उनके भ्राता को क्षमा कर दे । कृष्ण ने सदा की तरह ही उदारता दिखाई, परंतु दंड स्वरूप रुक्मी के केश काट कर उसे मुक्त कर दिया । एक योद्धा के लिए इससे अधिक लज्जाजनक बात नहीं थी । पराजय के पश्चात क्षेत्रीय जनमानस द्वारा रुक्मी को गौडेरा के रूप में पराजय और लज्जा के देवता के रूप में पूजे जाने के दृष्टांत मिलते हैं ।

लोककथाओं के अनुसार, कृष्ण रुक्मिणी का हरण करने के पश्चात माधवपुर घेड गांव आए थे और इसी स्थान पर उनसे विवाह रचाया था । इसी की स्मृति में, माधवराय (श्रीकृष्ण) का एक देवालय निर्मित किया गया है । प्रतिवर्ष इस विवाह की स्मृति में माधवपुर में सांस्कृतिक मेले का आयोजन किया जाता है । द्वारका में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का बड़े ही धूमधाम और समारोह के साथ स्वागत किया गया ।

तुलादान रुक्मिणी के जीवन की एक सांकेतिक घटना है, जो यह संदेश देती है कि भक्ति का मोल भौतिक संपदा से परे है । श्रीकृष्ण की एक और रानी सत्यभामा, श्रीकृष्ण के प्रति उनके प्रेम के बारे में स्वयं को बताती हैं और उनके (श्रीकृष्ण) ह्रदय में अपना स्थान बना लेती हैं । दूसरी ओर रुक्मिणी एक समर्पित पत्नी हैं, जो अपने प्रभु की सेवा में विनम्र है । उनकी भक्ति ही उनकी वास्तविक आंतरिक सुंदरता है । एक अवसर पर, ऋषि नारद द्वारका पहुंचे और संवाद ही संवाद में सत्यभामा को संकेत दिया कि श्रीकृष्ण उनके प्रति जो प्रेम प्रदर्शित करते हैं वह वास्तविक नहीं है । वह रुक्मिणी ही है, जिनका उनके हृदय में स्थान है । इसे सहन करने में असमर्थ सत्यभामा ने इसे साबित करने के लिए नारदजी को चुनौती दी । नारदजी ने अपने शब्दों के साथ, उसे एक व्रत (अनुष्ठान) को स्वीकार करने में छल किया, जहां उसे श्रीकृष्ण को नारदजी को दान स्वरूप देना है और कृष्ण के भार बराबर स्वर्ण देकर उन्हे पुनः प्राप्त करना है । नारद ने उसे इस व्रत को स्वीकार करने का लालच दिया और उसे बताया कि यदि वह इस तुलाभरण को करने में सफल हो जाती है तो श्रीकृष्ण का उनसे प्रेम कई गुना बढ़ जाएगा । वह अपने अहंकार को संकेत देकर यह भी कहते हैं कि उनकी संपत्ति कृष्ण के भार के बराबर नहीं हो सकती । सत्यभामा के अहंकार को विधिवत उठाए जाने के पश्चात वह नारदजी से कहती हैं कि वह इतनी संपत्ति जुटा सकती हैं कि कृष्ण को पाना उनके लिए आसान है । नारद जी ने उसे (सत्यभामा) चेतावनी दी कि यदि वह ऐसा करने में समर्थ नहीं है, तो श्रीकृष्ण उसके दास बन जाएंगे, जैसा कि वह चाहते है ।

व्रत के लिए निर्धारित दिवस सत्यभामा अन्य पत्नियों की विनती के पश्चात भी कृष्ण को दान में दे देती हैं । कृष्ण नारदजी को इस नाटक के लिए नमन करते हैं । नारदजी को श्रीकृष्ण दान करने के पश्चात, सत्यभामा तुलादान के लिए व्यवस्था करती हैं और स्वर्णाभूषणों के अपने विशाल भंडार से सब कुछ तुला पर रख देने के पश्चात भी वह हिलता तक नहीं है । तब नारद ने उसे उलाहना देकर कहते हैं कि यदि वह पर्याप्त स्वर्ण या हीरे नहीं जुटा पाई तो वह श्रीकृष्ण को किसी और के दास के रूप में नीलाम करने के लिए विवश हो जाएंगे । सत्यभामा अपने अभिमान को पी लेती हैं और अन्य सभी पत्नियों से स्वर्णाभूषण देने के लिए भिक्षा माँगती हैं । वे सभी कृष्ण से प्रेम करती हैं, लेकिन दुःख, इसका भी कोई लाभ नहीं ।

कृष्ण इस सारे नाटक के एक मूक साक्षी बन, सत्यभामा के अहंकार के घावों पर उलाहना का नमक छिड़कते हैं कि द्वारका का राजा अब किसी ऋषि का दास बन जाएगा और उसे अपनी प्रिय पत्नी का बिछोह सहन करना पड़ेगा । नारद सत्यभामा को सुझाव देते हैं कि रुक्मिणी उन्हें इस उलझन से बाहर निकालने में सक्षम हो सकती हैं । अंत में सत्यभामा अपना अभिमान पी लेती हैं और कृष्ण को पहली पत्नी को समर्पित करती हैं । रुक्मिणी आती हैं और अपने पति से प्रार्थना के साथ एक तुलसी पत्र तुला पर रखती हैं । तुला एक बार में ही सम पर आ जाती है ।

भिन्न-भिन्न ग्रंथों में इसके भिन्न-भिन्न कथन हैं कि क्यों तुलाभरण किया गया ? रुक्मिणी द्वारा अर्पित तुलसी पत्र, सत्यभामा के धन की तुलना में भारी होना एक संकेत भर है कि भगवान को विनम्र भेंट किसी भी भौतिक संपदा से अधिक है ।

रुक्मिणी या रुखुमई को महाराष्ट्र के पंढरपुर में विठोबा (कृष्ण का अवतार) की पत्नी के रूप में पूजा जाता है ।

माना जाता है कि १४८० में रुक्मिणी देवी के सेवक संदेशवाहक इस दुनिया में वाडिरजतीर्थ (१४८०-१६००) के रूप में प्रकट हुए, जो माधवाचार्य परंपरा के सबसे बड़े संत थे । उन्होंने १२४० श्लोकों में रुक्मिणी और कृष्ण की महिमा का वर्णन करते हुए एक प्रसिद्ध रचना की

जन्म[संपादित करें]

महाकाव्य महाभारत और अन्य पौराणिक शास्त्रों के अनुसार, साक्षात महालक्ष्मी जी ने रूक्मणीजी के रूप में विदर्भ राज्य के राजा भीष्मक के यह अवतार लिया था। और उनके पाँच बड़े भाई रुक्मी , रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्मनेत्र थे। भागवत पुराण में बताया गया है कि रुक्मिणी ने एक बार कृष्ण और उनके वीरतापूर्ण कार्यों के बारे में सुना , जैसे अत्याचारी राजा कंस का वध करना और दुष्ट राजा जरासंध का विरोध करना। वह उनसे प्यार करने लगी और उनसे शादी करना चाहती थी। रुक्मिणी कल्याणम का प्रसंग और अपने इच्छित पति के प्रति रुक्मिणी की भक्ति ऋषि शुक द्वारा राजा परीक्षित को सुनाई गई है ।

रुक्मिणी के वरमाता-पिता प्रसन्न हुए और उन्होंने अनुमति दे दी, लेकिन रुक्मी- जो जरासंध का सहयोगी था- ने इसका कड़ा विरोध किया। इसके बजाय, उसने प्रस्ताव दिया कि वह अपने मित्र शिशुपाल- चेदि साम्राज्य के युवराज और कृष्ण के चचेरे भाई से विवाह करें। भीष्मक सहमत हो गए, और व्यथित रुक्मिणी ने तुरंत एक विश्वसनीय ब्राह्मण को बुलाया और उसे कृष्ण को संदेश देने के लिए कहा।

रुक्मिणीजी का कृष्ण के प्रति प्रेम पत्र[संपादित करें]

रुक्मिणीजी पत्र में श्रीकृष्ण से कहा है की - "त्रिभुवनसुन्दर! आपके गुणों को, जो सुनने वालों के कानों के रास्ते हृदय में प्रवेश करके एक-एक अंग के ताप, जन्म-जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्य को जो नेत्र वाले जीवों के नेत्रों के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पुरुषार्थों के फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आप में ही प्रवेश कर रहा है। प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर! चाहे जिस दृष्टि से देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम-सभी में आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्यलोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्ति का अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण! आप ही बतलाइये, ऐसी कौन-सी कुलवती महागुणी और धर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी? इसीलिये प्रियतम! मैंने आपको पतिरूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदय की बात आपसे छिपी नहीं हैं। आप यहाँ पधार कर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये। कमलनयन! प्राणवल्लभ! मैं आप-सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाय। मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त, इष्ट, दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदि की पूजा के द्वारा भगवान परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो भगवान श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके।

प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होने वाला हो, उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्त रूप से आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासंध की सेनाओं को मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये। यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो अन्तःपुर में, भीतर के जनाने महलों में पहरे के अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बंधुओं को मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता है, जिसमें विवाहि जाने वाली कन्या को, दुलहिन को नगर के बाहर गिरिजादेवी के मन्दिर में जाना पड़ता है। कमलनयन! उमापति भगवानशंकर के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्माशुद्धि के लिये आपके चरणकमलों की धूल से स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों ने लेने पड़े, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा।"

रूक्मणी हरण तथा उनका विवाह[संपादित करें]

रुक्मिणी का संदेश पाकर भगवान श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर शीघ्र ही कुण्डिनपुर की ओर चल दिए। उन्होंने रुक्मिणी के दूत ब्राह्मण को भी रथ पर बिठा लिया था। श्रीकृष्ण के चले जाने पर पूरी घटना बलराम के कानों में पड़ी। वे यह सोचकर चिंतित हो उठे कि श्रीकृष्ण अकेले ही कुण्डिनपुर गए हैं। अतः वे भी यादवों की सेना के साथ कुण्डिनपर के लिए चल पड़े। शिशुपाल का बारात लेकर आना उधर, भीष्मक ने पहले ही शिशुपाल के पास संदेश भेज दिया था। फलतः शिशुपाल निश्चित तिथि पर बहुत बड़ी बारात लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचा। बारात क्या थी, पूरी सेना थी। शिशुपाल की उस बारात में जरासंध, पौण्ड्रक, शाल्व और वक्रनेत्र आदि राजा भी अपनी-अपनी सेना के साथ थे। सभी राजा कृष्ण से शत्रुता रखते थे। विवाह का दिन था। सारा नगर बंदनवारों और तोरणों से सज्जित था। मंगल वाद्य बज रहे थे। मंगल गीत भी गाए जा रहे थे। पूरे नगर में बड़ी चहल-पहल थी। नगर-नगरवासियों को जब इस बात का पता चला कि श्रीकृष्ण और बलराम भी नगर में आए हुए हैं, तो वे बड़े प्रसन्न हुए। वे मन-ही मन सोचने लगे, कितना अच्छा होता यदि रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण के साथ होता, क्योंकि वे ही उसके लिए योग्य वर हैं। श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी का हरण कृष्ण द्वारा हरण सन्ध्या के पश्चात का समय था।

श्रीकृष्ण रुक्मणि हरण करते हुए

रुक्मिणी विवाह के वस्त्रों में सज-धजकर गिरिजा के मंदिर की ओर चल पड़ी। उसके साथ उसकी सहेलियाँ और बहुत-से अंगरक्षक भी थे। वह अत्यधिक उदास और चिंतित थी, क्योंकि जिस ब्राह्मण को उसने श्रीकृष्ण के पास भेजा था, वह अभी लौटकर उसके पास नहीं पहुँचा था। रुक्मिणी ने गिरिजा की पूजा करते हुए उनसे प्रार्थना की- "हे मां। तुम सारे जगत की मां हो! मेरी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह नहीं करना चाहती।" रुक्मिणी जब मंदिर से बाहर निकली तो उसे वह ब्राह्मण दिखाई पड़ा। यद्यपि ब्राह्मण ने रुक्मिणी से कुछ कहा नहीं, किंतु ब्राह्मण को देखकर रुक्मिणी बहुत प्रसन्न हुई। उसे यह समझने में संशय नहीं रहा कि श्रीकृष्ण भगवान ने उसके समर्पण को स्वीकार कर लिया है। रुक्मिणी अपने रथ पर बैठना ही चाहती थी कि श्रीकृष्ण ने विद्युत तरंग की भाँति पहुँचकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे खींचकर अपने रथ पर बिठा लिया और तीव्र गति से द्वारका की ओर चल पड़े। क्षण भर में ही संपूर्ण कुण्डिनपुर में ख़बर फैल गई कि श्रीकृष्ण रुक्मिणी का हरण करके उसे द्वारकापुरी ले गए। शिशुपाल के कानों में जब यह समाचार पहुँचा तो वह क्रुद्ध हो उठा। उसने अपने मित्र राजाओं और उनकी सेनाओं के साथ श्रीकृष्ण का पीछा किया, किंतु बीच में ही बलराम और यदुवंशियों ने शिशुपाल आदि को रोक लिया। भयंकर युद्ध हुआ। बलराम और यदुवंशियों ने बड़ी वीरता के साथ लड़कर शिशुपाल आदि की सेना को नष्ट कर दिया। फलतः शिशुपाल आदि निराश होकर कुण्डिनपुर से चले गए। रुक्मी यह सुनकर क्रोध से काँप उठा। उसने बहुत बड़ी सेना लेकर श्रीकृष्ण का पीछा किया। उसने प्रतिज्ञा की कि वह या तो श्रीकृष्ण को बंदी बनाकर लौटेगा या फिर कुण्डिनपुर में अपना मुंह नहीं दिखाएगा। रुक्मी और श्रीकृष्ण का घनघोर युद्ध हुआ। श्रीकृष्ण ने उसे युद्ध में हराकर अपने रथ से बांध दिया, किंतु बलराम ने उसे छुड़ा लिया। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- "रुक्मी अब अपना संबंधी हो गया है। किसी संबंधी को इस तरह का दंड देना उचित नहीं है।" रुक्मी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार पुनः लौटकर कुण्डिनपुर नहीं गया। वह एक नया नगर बसाकर वहीं रहने लगा। कहते हैं कि रुक्मी के वंशज आज भी उस नगर में रहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी कोद्वारका ले जाकर उनके साथ विधिवत विवाह किया।प्रद्युम्न उन्हीं के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, जो कामदेव के अवतार थे। श्रीकृष्ण की पटरानियों में रुक्मिणी का महत्त्वपूर्ण स्थान था। उनके प्रेम और उनकी भक्ति पर भगवान श्रीकृष्ण मुग्ध थे।[2]

संतान तथा वैवाहिक जीवन[संपादित करें]

शंख चक्र गदा पद्म विभूषित श्री रुकमणीजी

रुक्मिणीजी से विवाह के बाद भी कृष्ण को बहुत से विवाह करने पड़े, लेकिन श्रीकृष्ण ने सदैव रूक्मणीजी को ही अपनी एकमेव प्रिय पत्नी के रूप में माना। भागवत आदि ग्रंथों में रुकमणी की निस्वार्थ सेवा की अत्यंत प्रशंसा की गई है। श्रीकृष्ण रुक्मिणी की निस्वार्थ भक्ति के वश होकर उनसे इतना प्रेम करते थे की बाकी रानियों को रुकमणी से ईर्षा होती थी। महाभारत में श्रीकृष्ण रुक्मिणी के विहार तथा प्रणय प्रेम प्रसंगों की विस्तार से चर्चा की गई है।

द्वारिका में श्रीकृष्ण और रुकमणी
  भागवत पुराण में कहा गया है कि अनंत काल तक संभोग के पश्चात रुक्मिणी और कृष्ण के दस पुत्र की प्राप्ति हुई उनके नाम प्रद्युम्न , चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारु, चरुगुप्त, भद्रचारु, चारुचंद्र, विचारु और चारु थे। 

इस प्रकार श्रीकृष्ण के जीवन में रुक्मिणीजी का महत्व सर्वश्रेष्ठ है। उन्हें आज भी श्रीकृष्ण की सब से प्रिय पत्नी और निस्वार्थ भक्ति की मिसाल के तौर पर याद किया जाता है।

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Miller, Barbara Stoler (1975). "Rādhā: Consort of Kṛṣṇa's Vernal Passion". Journal of the American Oriental Society. 95 (4): 655–671. JSTOR 601022. आइ॰एस॰एस॰एन॰ 0003-0279. डीओआइ:10.2307/601022.
  2. "रुक्मिणी". hi.krishnakosh.org. अभिगमन तिथि 2024-06-21.