scorecardresearch
www.fgks.org   »   [go: up one dir, main page]

अफगानिस्तान : युद्ध की तबाही के बीच इस मुल्क में क्रिकेट ने कैसे जड़ें जमाईं?

अफगानिस्तान ने 25 जून को बांग्लादेश को हराकर पहली बार टी-20 विश्वकप के सेमीफाइनल में जगह बनाई. लेकिन इस देश में क्रिकेट का इतिहास काफी चुनौतियों से भरा रहा है

टी-20 विश्वकप में ऑस्ट्रेलिया को हराने के बाद खुशी मनाती अफगानिस्तान की टीम
ऑस्ट्रेलिया को हराने के बाद खुशी मनाती अफगानिस्तान की टीम
अपडेटेड 26 जून , 2024

पिछली आधी सदी से देखें तो एक लैंड लॉक्ड (चारों तरफ से जमीन से घिरे) देश के रूप में अफगानिस्तान की नियती भी चौतरफा बंधी नजर आती है. उसके झंडे में समाहित तीनों रंग - काला, लाल और हरा - जैसे किसी शोक गीत की अबूझ इबारत-सी लगते हैं. लेकिन इन सबके बीच क्रिकेट जैसे वहां के लोगों में एक खुशी और उम्मीद की रोशनी बनकर उभरा है जिसने धुंधले पड़ते इस झंडे को एक नई आभा दी है. 

जून की 25 तारीख को अफगानिस्तान की क्रिकेट टीम ने कैरेबियाई सरजमीं पर जो इतिहास रचा, उसकी बुनियाद तो काफी पहले पड़ चुकी थी. पर शायद शुभ मुहूर्त की देर थी. और इस बार अफगानी चूके नहीं. उन्होंने टी-20 विश्वकप के आखिरी सुपर-8 मैच में एक करो या मरो मुकाबले में बांग्लादेश को 8 रनों से हरा कर पहली बार सेमीफाइनल में अपना दावा पेश कर दिया.

बांग्लादेश के खिलाफ विकेट लेने पर खुशी मनाते राशिद खान
बांग्लादेश के खिलाफ विकेट लेने पर खुशी मनाते राशिद खान

एक दिन पहले यानी 24 जून को जब भारत ने ऑस्ट्रेलिया को मात दी तो अफगान टीम के लिए एक सीधा मौका था - बांग्लादेश को हराओ और सेमीफाइनल का टिकट कटाओ. हालांकि अगले दिन टॉस जीतकर सेंट विन्सेंट के आर्नोस वेल ग्राउंड में जब अफगान क्रिकेट के लड़ाके बैटिंग के लिए उतरे तो उनके लिए राह आसान नहीं थी. पहले विकेट के लिए हुई 59 रनों की साझेदारी का टीम बहुत फायदा नहीं उठा सकी, और 20 ओवर पूरा होते-होते महज 115 रन ही बना सकी. 

यहां अब इस मैच के पहले हाफ में तीन सूरतें बन रही थीं. पहला, अफगानिस्तान जीते और सीधा सेमीफाइनल खेले. दूसरा, अगर टीम हारी तो ऑस्ट्रेलिया को सेमीफाइनल में पहुंचने का मौका मिल जाएगा. और तीसरा, अगर बांग्लादेश 116 रनों का लक्ष्य 12.4 ओवरों में हासिल कर ले गई तो वह भी टॉप-4 में जगह बना सकती है. लेकिन कप्तान राशिद खान एंड टीम ने उलटफेर से भरी इस सीरीज में एक और उलटफेर को अंजाम दिया और एक रोमांचक जीत दर्ज की. 

दूसरे हाफ में कई दफा बारिश के खलल के बाद भी अफगानिस्तान की टीम अपने लक्ष्य पर निशाना टिकाए रही. डकवर्थ लुइस नियम के तहत संशोधित 19 ओवरों में 114 रनों का पीछा कर रही बांग्लादेश की टीम महज 105 रनों पर सिमट गई. और अफगानिस्तान ने देश में जीत का बेसब्री से इंतजार कर रहे क्रिकेट प्रेमियों को सड़कों पर निकल कर नाचने का मौका दे दिया.

खुद टीम के हेड कोच जोनाथन ट्रॉट और इस विश्वकप से पहले टीम में गेंदबाजी कोच के रूप में शामिल ड्वेन ब्रावो समेत पूरा अफगानिस्तान क्रिकेट का सपोर्ट स्टाफ इस पल का आनंद ले रहा था. कई अफगानी दर्शकों की आंखों से आंसू निकल रहे थे. और हां, ये पुरातन चली आ रही त्रासदी और दुख के आंसू नहीं थे. बल्कि खुशी के आंसू थे और क्रिकेट ने ही उनके लिए ये मौका मुहैया कराया था.

अफगानिस्तान क्रिकेट टीम के सेमीफाइनल में पहुंचने पर सड़कों पर निकला हुजूम
अफगानिस्तान क्रिकेट टीम के सेमीफाइनल में पहुंचने पर सड़कों पर निकला हुजूम

लेकिन 1990 के पहले तक क्रिकेट से लगभग अंजान रहे इस मुल्क में बीते तीसेक सालों में ऐसा क्या हुआ कि यह देश न सिर्फ क्रिकेट के फलक पर अपनी धाक जमा रहा है बल्कि दक्षिण एशिया में भारत के बाद दूसरी सर्वश्रेष्ठ टीम बनने की राह पर है. दरअसल, अस्सी के दशक में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ा, तो कई अफगानी भागकर पाकिस्तान के शरणार्थी शिविरों में पहुंचे. 

हालांकि यहां भी उनके लिए कोई बेहतर हालात नहीं थे. लेकिन क्रिकेट के दीवाने इस देश में क्रिकेट के रूप में ही सही, कुछ ऐसा था जो उन्हें एक सूत्र में जोड़ रहा था. उन्हें खुश रहने के लिए कुछ अनमोल लम्हे दे रहा था. यह 1992 का वक्त था. इमरान खान की अगुआई में पाकिस्तान की टीम ने हाल ही में वनडे विश्वकप फतेह किया था. विश्वकप का ताज हासिल करने के बाद पाक की हर गली-हर मोहल्ले में क्रिकेट का खुमार छाया हुआ था.

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कभी अफगान टीम में सलामी बल्लेबाज की भूमिका निभा चुके करीम सादिक भी बचपन में पाकिस्तानी कैंपों में से एक 'कच्चा कारा' में ही रहते थे. पाकिस्तान में क्रिकेट की दीवानगी के आलम में सादिक को भी इसकी लत लगी. वे रात में माचिस की फैक्ट्री में काम करते और दिन में क्रिकेट खेलते. कच्चा कारा कैंप के युवाओं में इस नए खेल के प्रति उत्साह देखते ही बनता था. 

यह कुछ उसी प्रकार की दीवानगी थी जिसकी तलाश अफगानिस्तान क्रिकेट के पितामह कहे जाने वाले ताज मलूक को 1990 के दशक में थी. मलूक ने ही तब पहली बार वह सपना देखा था कि अफगानिस्तान की भी एक राष्ट्रीय क्रिकेट टीम होनी चाहिए. वे याद करते हैं, "हम कच्चा कारा कैंप में रह रहे थे. मैं अपने तीन भाइयों के साथ मिलकर एक अफगान टीम चलाता था. हम क्रिकेट के दीवाने थे और तकरीबन हर अंतरराष्ट्रीय मैच को फॉलो करते थे."

बीबीसी से बातचीत में वे बताते हैं, "मुझे लग रहा था कि अगर हम क्रिकेट खेलते रहें तो हमारे पास अपने देश का प्रतिनिधित्व करने वाली एक राष्ट्रीय टीम होगी." मलूक अच्छे खिलाड़ियों की खोज में अफगानिस्तान के कई अलग-अलग शिविरों में गए. उन अफगान खिलाड़ियों से भी संपर्क किया जो पाकिस्तान की कई टीमों में जगह बना चुके थे. लेकिन हर कोई उतना उत्सुक नहीं था. 

मलूक बताते हैं, "जब मैंने राष्ट्रीय टीम बनाने के बारे में सोचना शुरू किया, तो मैं अपने जानने वाले हर अफगान खिलाड़ी के पास गया और उन्हें काबुल आने के लिए प्रोत्साहित किया. लेकिन उनके पिता हमारे घर आए और मुझे ऐसा न करने की चेतावनी दी. उन्होंने मुझसे कहा कि क्रिकेट उनके बेटों का समय बरबाद करता है."

करीम सादिक की भी कुछ ऐसी ही यादें हैं. वे बताते हैं, "हमारे पास खाने के लिए भी पैसे नहीं थे. मेरे परिवार की ओर से मुझ पर दबाव था क्योंकि मैं कमा नहीं पा रहा था." हालांकि मलूक अपने विश्वास पर टिके रहे. और 1995 आते-आते देश की ओलंपिक समिति के तत्वावधान में काबुल में अफगान क्रिकेट महासंघ की स्थापना हो गई. 

यह तब हुआ जब इस्लामी तालिबान देश में अपना आकार ले रहा था, और जिसने सार्वजनिक स्थानों पर फुटबॉल सहित अन्य खेलों के खेलने पर प्रतिबंध लगा दिया था. तालिबान की नजरों में फुटबॉल खिलाड़ियों की शॉर्ट्स (खेल के दौरान नीचे पहने जाने वाले कपड़े) गैर-इस्लामिक थे. हालांकि उन्हें क्रिकेट से दिक्कत नहीं हुई क्योंकि सफेद शॉर्ट्स उन्हें दिक्कत की वजह नहीं लगती थी. इसके अलावा कई तालिबानी, जिन्होंने पाक-शिविरों में भी समय बिताया था, उन्हें यह खेल भी पसंद आता था.

बहरहाल, अफगानिस्तान में क्रिकेट के बीज पड़ चुके थे लेकिन बाधाएं अभी भी कहां कम थीं! 2001 में अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और तालिबान शासन को उखाड़कर फेंक दिया. देश में अब नई सरकार थी. तत्कालीन परिस्थितियों में मलूक ने नई सरकार से क्रिकेट को बेहतर बनाने के लिए समर्थन की अपील की. लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी. मलूक याद करते हैं, "उन्होंने हमसे कहा: 'हम इसके लिए तुम्हें कोई पैसा नहीं देंगे, क्योंकि यह एक विदेशी खेल है.'"

जीत के बाद मुख्य कोच जोनाथन ट्रॉट के गले मिलते कप्तान राशिद खान
जीत के बाद मुख्य कोच जोनाथन ट्रॉट के गले मिलते कप्तान राशिद खान

पर मलूक और उनके जैसे अफगान क्रिकेट के शुभचिंतकों की वजह से ढुल-मूल तरीके से ही सही, देश में क्रिकेट का कारवां लगातार आगे बढ़ता रहा. इस नए खेल ने देश में सबसे पहले पाकिस्तान की सीमा से लगे पश्तून बहुल प्रांतों में अपनी जड़ें जमाईं. फिर इसका चौतरफा विस्तार होना शुरू हुआ. आईसीसी की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक, "अफगानिस्तान क्रिकेट महासंघ को 2008 में ICC के एक संबद्ध सदस्य के रूप में चुना गया, उसके बाद 2014 में उसे एसोसिएट सदस्य बनाया गया."

2014 ही वह साल था जब अफगानिस्तान के शहरों में हजारों लोग क्रिकेट में जीत का जश्न मनाने के लिए उमड़ पड़े थे. यह पहली बार था जब अफगानिस्तान ने क्रिकेट विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया था, जो अगले साल (2015) में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में खेला जाना था. यह उस देश के लिए कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी जहां लोग दशकों से युद्ध की तबाही देखते आ रहे थे. 

इसके बाद अफगानिस्तान क्रिकेट टीम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा है. इस टीम ने इंग्लैंड, श्रीलंका, पाकिस्तान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, बांग्लादेश जैसी धुरंधर टीमों को धूल चटाकर विश्व क्रिकेट में अपना डंका बजाया है. 2010 में अफगान क्रिकेट टीम के पहले मुख्य कोच बने पूर्व पाकिस्तानी कप्तान राशिद लतीफ ने एक बार इंडियन एक्सप्रेस से एक वाकया साझा किया. 

वाकया कुछ यूं है कि एक दिन जब वे प्रैक्टिस के लिए ग्राउंड पर जा रहे थे तब एक अफगान खिलाड़ी मीरवाइज अशरफ ने एक हेलिकॉप्टर की ओर इशारा किया जो उस जगह गिरा पड़ा था जहां अफगान क्रिकेटर अभ्यास किया करते थे. यह एक अमेरिकी चॉपर सिकोरस्की था, जो शायद तालिबानी गोलियों का शिकार हो गया था. यानी अफगान क्रिकेटरों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. यह काफी संभव था कि कोई हवा में हिचकोले खाता क्रैश्ड चॉपर आकर वहीं उसी मैदान में गिर जाता, जहां वे प्रैक्टिस कर रहे होते. 

लतीफ के इस ब्योरे से अफगान क्रिकेटरों की जद्दोजहद को समझा जा सकता है. आज यही मीरवाइज अशरफ अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष हैं. और लतीफ के बाद बहुत से प्रमुख खिलाड़ियों ने इस टीम को अपना अनुभवी समय कोचिंग के बतौर दिया है. पिछले साल हुए वनडे विश्वकप में अजय जडेजा भी टीम के साथ एक कोच के तौर पर जुड़े हुए थे.

भारत और यूएई ने भी अफगानिस्तान क्रिकेट को आगे बढ़ाने में काफी मदद की है. भारत ने अपनी सरजमीं पर प्रैक्टिस के लिए अफगान खिलाड़ियों को स्टेडियम से लेकर सारी सुविधाएं मुहैया कराई. उस विश्वकप में टीम ने शानदार प्रदर्शन करते हुए उस पाकिस्तान टीम को मात दी थी, जिसके शरणार्थी शिविरों में कभी अफगानिस्तान क्रिकेट ने सांस लेना शुरू किया.

बहरहाल, पिछले एक दशक में अफगान क्रिकेट टीम इस खेल की सबसे सफल कहानियों में से एक के रूप में उभरी है. मौजूदा टीम से एक पीढ़ी पहले के खिलाड़ी वे लोग थे जिन्होंने पाकिस्तान के शरणार्थी शिविरों में रहकर अफगानिस्तान के लिए क्रिकेट की राह तैयार की. लेकिन 2010 के बाद धीरे-धीरे इस टीम ने वो रफ्तार पकड़ी है जिसे देखकर बड़ी-से-बड़ी टीमें भी दांतों तले उंगली दबा लें. इस दौरान वे युवा घरेलू खिलाड़ी सामने आए हैं जिनका जन्म 2001 में अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण के बाद हुआ. 

मौजूदा टीम अपने से पहली पीढ़ी के बलिदान को याद रखती है. वह जानती है देश में इस समय लोगों के लिए खुशी का एकमात्र स्रोत क्या है. और जब ये टीम मैदान पर उतरती है तब इसका जुनून नजर भी आता है. टीम के 25 वर्षीय कप्तान राशिद खान न सिर्फ अफगानिस्तान की आगे बढ़कर अगुआई कर रहे हैं बल्कि विदेशी लीगों में उनके नाम का डंका बजता है. वे फ्रैंचाइज क्रिकेट में सबसे अधिक भुगतान पाने वाले सितारों में से एक के रूप में उभरे हैं. 

पर जैसा कि अफगानिस्तान की नियति रही है. खुशी के मौके काफी कम हैं और गम के ज्यादा. अफगानिस्तान क्रिकेट में सब ठीक चल रहा था कि 2021 में फिर से तालिबान का देश पर कब्जा हो गया. इसके साथ ही, सालों से वहां डटे अमेरिकी सैनिकों की भी वापसी हो गई. अफगानिस्तान क्रिकेट के लिए शायद यह अच्छा शगुन नहीं था. सत्ता संभालने के बाद तालिबान ने देश में क्रिकेट प्रशासन को अपने नियंत्रण में ले लिया और एक नए सीईओ नसीब खान को नियुक्त किया. 

देश में महिलाओं को सार्वजनिक जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों - जैसे काम, अध्ययन या सार्वजनिक रूप से बाहर जाने से प्रतिबंधित करते हुए तालिबान ने अफगान महिला क्रिकेट टीम को भी खेलने से प्रतिबंधित कर दिया. हालांकि पुरुष क्रिकेट टीम फिर भी बची रही. लेकिन तालिबान के इस रवैये के कारण अफगानिस्तान क्रिकेट टीम को अंतरराष्ट्रीय मैचों में खेलने में बाधा आ रही है. 

इसी साल की शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया ने अफगान टीम के खिलाफ तीन मैचों की एक सीरीज को यह कह कर रद्द कर दिया कि "तालिबान शासन के तहत देश में महिलाओं और लड़कियों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है." यह कुल जमा तीसरी बार था जब ऑस्ट्रेलिया ने सीरीज खेलने से इनकार किया. इसके देखा-देखी इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड ने भी कहा है कि जब तक तालिबान महिला क्रिकेट पर लगे प्रतिबंध को नहीं हटाता, तब तक वे भी अफगानिस्तान के साथ कोई द्विपक्षीय मैच नहीं खेलेंगे. 

बीच में तो ऐसा भी लगा कि कहीं आईसीसी अफगानिस्तान क्रिकेट की मान्यता न रद्द कर दे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस विश्वकप में जब अफगान टीम ने ऑस्ट्रेलिया को हराया तब राशिद खान ने एक बड़ी बात कही. उन्होंने कहा, "क्रिकेट ही घर पर (अफगानिस्तान में) खुशी का एकमात्र स्रोत है. देश में यही एकमात्र स्रोत बचा है जहां लोग जश्न मना सकते हैं. और अगर हम उस स्रोत को खुद से दूर रखते हैं, तो मुझे नहीं पता कि अफगानिस्तान कहां रहेगा." वाकई राशिद खान की बात गौर करने लायक है.

Advertisement
Advertisement