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जैन ग्रंथ

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(जैन ग्रन्थ से अनुप्रेषित)

जैन साहित्य बहुत विशाल है। अधिकांश में वह धार्मिक साहित्य ही है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में यह साहित्य लिखा गया है।

भगवान महावीरस्वामी की प्रवृत्तियों का केंद्र मगध रहा है, इसलिये उन्होंने यहाँ की लोकभाषा अर्धमागधी में अपना उपदेश दिया जो उपलब्ध जैन आगमों में सुरक्षित है। ये आगम ४५ हैं। आगे चलकर अपभ्रंश तथा अपभ्रंश की उत्तरकालीन लोक-भाषाओं में जैन पंडितों ने अपनी रचनाएँ लिखकर भाषा साहित्य को समृद्ध बनाया।

आदिकालीन साहित्य में जैन साहित्य के ग्रन्थ सर्वाधिक संख्या में और सबसे प्रमाणिक रूप में मिलते हैं। जैन रचनाकारों ने पुराण काव्य, चरित काव्य, कथा काव्य, रास काव्य आदि विविध प्रकार के ग्रंथ रचे। आचार्य हेेमचंद्रजी, सोमप्रभ सूरीजी आदि मुख्य जैन कवि हैं। इन्होंने हिंदुओं में प्रचलित लोक कथाओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया और परंपरा से अलग उसकी परिणति अपने मतानुसार दिखाई।

आगम-साहित्य की प्राचीनता[संपादित करें]

जैन आगम की पारम्परिक गणना

जैन-साहित्य का प्राचीनतम भाग ‘आगम’ के नाम से कहा जाता है। ये आगम ४६ हैं-

  • (क) १२ अंग : आयारंग, सूयगडं, ठाणांग, समवायांग, भगवती, नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अंतगडदसा, अनुत्तरोववाइयदसा, पण्हवागरण, विवागसुय, दिठ्ठवाय।
  • (ख) १२ उपांग : ओवाइय, रायपसेणिय, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूरियपन्नति, जम्बुद्दीवपन्नति, निरयावलि, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुप्फचूलिया, वण्हिदसा।
  • (ग) १० पइन्ना : चउसरण, आउरपचक्खाण, भत्तपरिन्ना, संथर, तंदुलवेयालिय, चंदविज्झय, देविंदत्थव, गणिविज्जा, महापंचक्खाण, वोरत्थव।
  • (घ) ६ छेदसूत्र : निसीह, महानिसीह, ववहार, आचारदसा, कप्प (बृहत्कल्प), पंचकप्प।
  • (च) ४ मूलसूत्र : उत्तरज्झयण, आवस्सय, दसवेयालिय।
  • (छ) २ चूलिकासूत्र : पिंडनिज्जुति नंदि और अनुयोग।

आगम ग्रन्थ काफी प्राचीन है, तथा जो स्थान वैदिक साहित्य क्षेत्र में वेद का और बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक का है, वही स्थान जैन साहित्य में आगमों का है। आगम ग्रन्थों में महावीर स्वामी के उपदेशों तथा जैन संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाली अनेक कथा-कहानियों का संकलन तथा जीवन उपयोगी सूत्र और बोहुत कुछ है।

जैन श्रमण पाटलिपुत्र (पटना) में एकत्रित हुए और यहाँ खण्ड-खण्ड करके ग्यारह अंगों का संकलन किया गया, बारहवाँ अंग किसी को स्मरण नहीं था, इसलिए उसका संकलन न किया जा सका। इस सम्मेलन को 'पाटलिपुत्र-वाचना' के नाम से जाना जाता है। कुछ समय पश्चात जब आगम साहित्य का फिर विच्छेद होने लगा तो महावीर स्वामी निर्वाण के 827 या 840 वर्ष बाद (ईसवी सन् के 300-313 में) जैन साधुओं के दूसरे सम्मेलन हुए। एक आर्यस्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में तथा दूसरा नागार्जुन सूरि की अध्यक्षता में वलभी में। ओडिशा की उदयगिरी और खंडगिरी स्थान पर भी जैन राजा खारबेल के समय उनकी अध्यक्षता मे जैन ग्रंथो का संकलन किया गया।

मथुरा के सम्मेलन को 'माथुरी-वाचना' की संज्ञा दी गयी है। तत्पश्चात लगभग 150 वर्ष बाद, महावीर स्वामी निर्वाण के 980 या 993 वर्ष बाद ( ईसवी सन् 453-466 में) वल्लभी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में साधुओं का चौथा सम्मेलन हुआ, जिसमें सुव्यवस्थित रूप से आगमों का अन्तिम बार संकलन किया गया। यह सम्मेलन 'वलभी-वाचना' के नाम से जाना जाता है। वर्तमान आगम साहित्य इसी संकलना का रूप है।

जैन आगमों की उक्त तीन संकलनाओं के इतिहास से पता लगता है कि समय-समय पर आगम साहित्य को काफी क्षति उठानी पड़ी, और यह साहित्य अपने मौलिक रूप में सुरक्षित नहीं रह सका।

महत्व[संपादित करें]

ईसा के पूर्व लगभग चौथी शताब्दी से लगाकर ईसवी सन् पाँचवी शताब्दी तक की भारतवर्ष की आर्थिक तथा सामाजिक दशा का चित्रण करने वाला यह साहित्य अनेक दृष्टियों से महत्त्व का है। आचारांग, सूयगडं, उत्तराध्ययन सूूत्र, दसवैकालिक आदि ग्रन्थों में जो जैन श्रमण के आचार-चर्या का विस्तृत वर्णन है, और डॉ. विण्टरनीज आदि के कथानानुसार वह श्रमण-काव्य (Ascetic poetry) का प्रतीक है। भाषा और विषय आदि की दृष्टि से जैन आगमों का यह भाग सबसे प्राचीन मालूम होता है।

भगवती कल्पसूत्र, ओवाइय, ठाणांग, निरयावलि आदि ग्रन्थों में श्रमण भगवान महावीर, उनकी चर्या, उनके उपदेशों तथा तत्कालीन राजा, राजकुमार और उनके युद्ध आदि का विस्तृत वर्णन है, जिससे जैन इतिहास की लुप्तप्राय अनेक अनुश्रुतियों का पता लगता है। नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अन्तगडदसा, अनुत्तरोववाइयदसा, विवागसुय आदि ग्रन्थों में महावीर स्वामीजी द्वारा कही हुई अनेक कथा-कहानियाँ तथा उनकी शिष्य-शिष्याओं का वर्णन है, जिसमें जैन परम्परा सम्बन्धी अनेक बातों का परिचय मिलता है। रायपणेसिय, जीवाभिगम, पन्नवणा आदि ग्रन्थों में वास्तुशास्त्र, संगीत, वनस्पति आदि सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण विषयों का वर्णन है जो प्रायः अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है।

छेदसूत्रों में साधुओं के आहार-विहार तथा प्रायश्चित आदि का विस्तृत वर्णन है, जिसकी तुलना बौद्धों के विनयपिटक से की सकती है। वृहत्कल्पसूत्र (1-50) में बताया गया है कि जब भगवान महावीर साकेत (अयोध्या) सुभुमिभाग नामक उद्यान में विहार करते थे तो उस समय उन्होंने अपने भिक्षु-भिक्षुणियों को साकेत के पूर्व में अंग-मगध तक दक्षइ के कौशाम्बी तक, तथा उत्तर में कुणाला (उत्तरोसल) तक विहार करने की अनुमति दी। इससे पता लगता है कि आरम्भ में जैन धर्म का प्रचार सीमित था, तथा जैन श्रमण मगध और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों को छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकते थे। निस्सन्देह छेदसूत्रों का यह भाग उतना ही प्राचीन है जितने स्वयं महावीर।

तत्पश्चात राजा कनिष्क के समकालीन मथुरा के जैन शिलालेखों में भिन्न-भिन्न गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख है, वह भद्रवाहु स्वामी के कल्पसूत्र में वर्णित गण, कुल और शाखाओं के साथ प्रायः मेल खाता है। इससे भी जैन आगम ग्रन्थों की प्रामाणिकता का पता चलता है। वस्तुतः इस समय तक जैन परम्परा में श्वेताम्बर और दिगम्बर का भेद नहीं मालूम होता। जैन आगमों के विषय, भाषा आदि में जो पालि वह भी इस साहित्य की प्राचीनता को द्योतित करती है।

पालि-सूत्रों की अट्टकथाओं की तरह आगमों की भी अनेक टीका-टिप्पणियाँ, दीपिका, निवृत्ति, विवरण, अवचूरि आदि लिखी गयी हैं। इस साहित्य को सामान्यता निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका-इन चार विभागों में विभक्त किया जा सकता है। आगम को मिलाकर इसे 'पांचांगी' के नाम से कहते हैं। आगम साहित्य की तरह यह साहित्य भी बहुत महत्त्व का है। इसमें आगमों के विषय का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। इस साहित्य में अनेक अनुश्रुतियाँ सुरक्षित हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। वृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, आवश्यकटीका, उत्तराध्ययन टीका आदि टीका-ग्रन्थों में पुरातत्व सम्बन्धी विविध सामग्री भरी पड़ी है, जिससे भारत के रीति-रिवाज, मेले त्यौहार, साधु-सम्प्रदाय, दुष्काल, बाढ़, चोर-लुटेरे, सार्थवाह, व्यापार के मार्ग, शिल्प, कला, भोजन-शास्त्र, मकान, आभूषण, आदि विविध विषयों पर बहुत प्रकाश पड़ता है।

लोक-कथा और भाषा शास्त्र की दृष्टि से भी यह साहित्य बहुत महत्त्व का है। डॉ० विण्टरनीज के शब्दों में-

जैन टीका-ग्रन्थों में भारतीय प्राचीन-कथा साहित्य के अनेक उज्वल रत्न विद्यामान हैं, जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते।

चूर्णि-साहित्य में प्राकृत मिश्रित संस्कृत का उपयोग किया गया है, जो भाषाशास्त्र की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है, और साथ यह उस महत्त्वपूर्ण काल का द्योतक है जब जैन विद्वान प्राकृत का आश्रय छोड़कर संस्कृत भाषा की ओर बढ़ रहे थे।

= जैन ग्रन्थों की बृहद सूची[संपादित करें]

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तत्त्वार्थसूत्र -- आचार्य उमास्वाती



इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]