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कुली बेगार उन्मूलन का माध्यम बना उत्तरायणी मेला
Bageshwar
Updated Sun, 12 Jan 2014 05:52 AM IST
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बागेश्वर। उत्तरायणी मेला आजादी की लड़ाई का भी अहम माध्यम रहा है। कुली बेगार और कुली उतार जैसी अमानवीय प्रथा को खत्म करने में इस मेले की प्रमुख भूमिका रही। 1921 को उत्तरायणी के मेले में आए हजारों लोगों के माध्यम से कुली उतार के बहिष्कार का संदेश उत्तराखंड के अधिकतर हिस्सों तक पहुंच गया।
जनवरी 1921 में राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बडे़ आंदोलन की तैयारी चल रही थी। पर्वतीय क्षेत्र में आवागमन के साधन नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार कुली उतार और कुली बेगार जैसी अमानवीय व्यवस्था का सहारा ले रही थी। पहाड़ के लोगों के लिए यह बड़ी समस्या थी। उत्तरायणी का मेला इस कुप्रथा के विनाश का बड़ा माध्यम बना। आज जिस सरयू बगड़ पर राजनीतिक दलों के पंडाल लगते हैं,1921 की उत्तरायणी में यही स्थान देश भक्ति के एक बड़े घटनाक्रम का साक्षी बना। 1 जनवरी 1921 को चामी गांव में कुली बेगार के खिलाफ एक बड़ी सभा हुई। यहां तय हुआ कि कुली उतार के खिलाफ कुमाऊं व्यापी अभियान चलाया जाएगा। इसके बाद उत्तरायणी मेले को इसके प्रचार और विस्तार का माध्यम बनाने की रणनीति बनी। 10 जनवरी को अल्मोड़ा से बद्रीदत्त पांडे और हरगोविंद पंत सहित कई आंदोलनकारी बागेश्वर पहुंचे। इसके बाद मेले में जुलूस प्रदर्शन, सभाओं का दौर चला। कुली बेगार के रजिस्टर सरयू में बहा दिए गए। बेगार नहीं देने की शपथ ली गई। इसी संकल्प और संदेश को लेकर मेलार्थी घरों को लौटे। आंदोलन का इतना गहरा असर हुआ कि बागेश्वर आए असिस्टेंट कमिश्नर डायबिल और अन्य अधिकारियों को कुली तक नहीं मिले। बाद में कुली उतार प्रथा खत्म हुई। इसका बड़ा श्रेय उत्तरायणी मेले को जाता है।
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